प्राकृतिक खेती समय की आवश्यकता,कछपुरा में कृषक संगोष्ठी का आयोजन।

 प्राकृतिक खेती समय की आवश्यकता,कछपुरा में कृषक संगोष्ठी का आयोजन।

कम लागत में अधिक लाभ के उपायों पर विशेषज्ञों ने दी जानकारी,वैज्ञानिकों ने बताया प्राकृतिक खेती का महत्व और देसी गाय की भूमिका।

गोसलपुर,ग्रामीण खबर MP।

सिहोरा तहसील के अंतर्गत ग्राम पंचायत कछपुरा के सभा कक्ष में शनिवार को परियोजना संचालक आत्मा, किसान कल्याण तथा कृषि विकास विभाग जबलपुर द्वारा कृषि विस्तार सुधार कार्यक्रम के तहत कृषक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस आयोजन का मुख्य उद्देश्य किसानों को रासायनिक खेती के दुष्प्रभावों से अवगत कराना और प्राकृतिक खेती की पद्धति को अपनाने के लिए प्रेरित करना था।

कार्यक्रम में कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एस. बी. अग्रवाल ने कहा कि आज के समय में जब मिट्टी की उर्वरा शक्ति घट रही है, उत्पादन लागत बढ़ रही है और कृषि पर्यावरण पर खतरा मंडरा रहा है, ऐसे में प्राकृतिक खेती समय की सबसे बड़ी आवश्यकता बन चुकी है। उन्होंने कहा कि आधुनिक कृषि में अधिक उत्पादन की होड़ में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अत्यधिक प्रयोग किया जा रहा है, जिससे भूमि की संरचना, जल स्रोत और पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है।

डॉ. अग्रवाल ने विस्तार से बताया कि प्राकृतिक खेती में भूमि की जुताई, जल प्रबंधन, पौधों की दिशा, फसलों का चयन, आच्छादन, सूक्ष्म पर्यावरण का संतुलन, केशाकर्षण शक्ति, देशी केंचुओं की भूमिका, गुरुत्वाकर्षण बल, भवंडर, देसी बीज और पारंपरिक कृषि तकनीकों का विशेष महत्व होता है। उन्होंने कहा कि यह खेती पूरी तरह से स्थानीय संसाधनों पर आधारित होती है, जिससे किसान अपनी लागत को काफी हद तक कम कर सकता है।

उन्होंने बताया कि प्राकृतिक खेती के चार मुख्य स्तंभ हैं — बीजामृत, जीवामृत, वपसा और आच्छादन। इन विधियों के उपयोग से न केवल मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है बल्कि फसलों में रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है। डॉ. अग्रवाल ने किसानों से कहा कि रासायनिक खादों के स्थान पर जीवामृत का प्रयोग करें, जिससे मिट्टी में मौजूद सूक्ष्म जीवों की संख्या बढ़ती है और पौधों को आवश्यक पोषक तत्व स्वाभाविक रूप से प्राप्त होते हैं।

उन्होंने आगे बताया कि प्राकृतिक खेती का सबसे मजबूत आधार देसी गाय है। गाय के गोबर और मूत्र से बने घोलों से मिट्टी की जैविक गुणवत्ता में सुधार होता है। देसी नस्ल की गायों का महत्व केवल धार्मिक दृष्टि से नहीं, बल्कि कृषि विज्ञान के दृष्टिकोण से भी अत्यधिक है। उन्होंने कहा कि एक गाय पाँच एकड़ भूमि की उर्वरता को बनाए रखने में सक्षम होती है।

इस अवसर पर आत्मा परियोजना की बीटीएम रिचा तिवारी और एटीएम साक्षी ओझा ने भी किसानों को संबोधित किया। उन्होंने कहा कि आज की कृषि व्यवस्था में प्राकृतिक खेती अपनाना ही किसानों के लिए दीर्घकालिक लाभ का मार्ग है। उन्होंने विभाग द्वारा संचालित विभिन्न योजनाओं की जानकारी दी और बताया कि राज्य सरकार किसानों को जैविक और प्राकृतिक खेती की दिशा में आगे बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण, अनुदान और तकनीकी सहायता प्रदान कर रही है।

कार्यक्रम के दौरान प्रगतिशील किसान जयराम केवट ने अपने अनुभव साझा करते हुए बताया कि उन्होंने दो वर्षों से प्राकृतिक खेती अपनाई है, जिसके परिणामस्वरूप उनकी फसल की गुणवत्ता में सुधार हुआ है और उत्पादन लागत में लगभग 40 प्रतिशत की कमी आई है। उन्होंने कहा कि मिट्टी की नमी लंबे समय तक बनी रहती है और फसल रोगों से भी सुरक्षित रहती है।

संगोष्ठी में क्षेत्र के सैकड़ों किसान उपस्थित रहे, जिन्होंने विशेषज्ञों से अपने सवाल पूछे और प्राकृतिक खेती से जुड़ी तकनीकों को समझा। कई किसानों ने कहा कि वे अब पारंपरिक खेती की ओर लौटने का संकल्प लेकर घर जा रहे हैं।

कृषि विभाग के अधिकारियों ने बताया कि आने वाले दिनों में इस तरह की संगोष्ठियाँ अन्य ग्राम पंचायतों में भी आयोजित की जाएंगी, ताकि अधिक से अधिक किसान प्राकृतिक खेती की पद्धति से जुड़कर आत्मनिर्भर बन सकें।

संगोष्ठी का समापन धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ, जिसमें सभी अतिथियों ने किसानों के उज्जवल भविष्य और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की कामना की।

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