श्रीकृष्ण और नेमिनाथ: यदुवंश के दो चिराग, एक ने युद्धभूमि में धर्म का घोष किया, दूसरे ने तपोभूमि में आत्मज्ञान की मशाल जलाई।
धर्म की रणभूमि में श्रीकृष्ण, त्याग की तपोभूमि में नेमिनाथ; एक ने गीता सुनाई, दूसरे ने ध्यान से केवल्य पाया।
सिहोरा,ग्रामीण खबर mp:
श्रीकृष्ण और नेमिनाथ—दो महान आत्माएं, यदुवंशी कुल के दो चिराग, जिनकी जीवन यात्रा दो अलग-अलग मार्गों पर चलती हुई भी धर्म की सर्वोच्चता में एकरूप हो जाती है। एक ओर श्रीकृष्ण हैं, जो धर्मयुद्ध के मैदान में अर्जुन को गीता का उपदेश देकर धर्म की रक्षा करते हैं, वहीं दूसरी ओर नेमिनाथ हैं, जो आत्मशुद्धि और अहिंसा की साधना करते हुए केवल्य ज्ञान को प्राप्त करते हैं।
भगवान नेमिनाथ और राजमती का 9 भवों का साथ रहा। नौवें भव में राजमती उनकी अविवाहित पत्नी बनीं, किन्तु इस जीवन में नेमिनाथ ने सांसारिक बंधनों को त्याग कर आत्मा के कल्याण का पथ चुना।
युवावस्था में भगवान नेमिनाथ का विवाह जूनागढ़ के नरेश उग्रसेन की सुपुत्री राजमती से तय हुआ। विवाह की भव्य तैयारियां हुईं। हजारों राजा-महाराजा, राजकुमार और बाराती उपस्थित हुए। रथ पर सजे नेमिनाथ के चारों ओर मंगल गीत और वाद्ययंत्रों की गूंज थी। परंतु इस उल्लास के बीच करुण पुकार नेमिनाथ के अंतरतम को झकझोर गई।
उन्होंने सारथि से रथ रोकने को कहा और पूछा कि ये मूक पशु-पक्षी बाड़ों में क्यों कैद हैं और करुण क्रंदन क्यों कर रहे हैं? सारथि ने बताया कि ये सभी पशु-पक्षी बारातियों के भोज हेतु लाए गए हैं।
नेमिनाथ का हृदय दया से भर गया। उन्होंने कहा, “मेरे विवाह के लिए मूक प्राणियों की हिंसा... यह महापाप है, मैं इसका भागी नहीं बनूंगा।” ऐसा लग रहा था जैसे सभी जीव भगवान से रक्षा की गुहार लगा रहे हों। नेमिनाथ ने निश्चय किया—“मैं अब किसी राजकुमारी का वर नहीं, आत्मा का साधक बनूंगा।”
माता-पिता ने रोते हुए निवेदन किया कि विवाह कर लें, पर प्रभु नेमिनाथ ने उत्तर दिया, “भोगवाली कर्म का नाश हो चुका है, अब मैं आत्मा के कल्याण की दिशा में अग्रसर हो रहा हूं। यदि एक स्त्री के लिए हजारों प्राणियों की हत्या होती है, तो ऐसा कर्म करना किसी को शोभा नहीं देता।”
वे रथ से उतर गए, बाड़ों को खुलवाया और पशुओं को मुक्त किया। अपने राजसी वस्त्र सारथि को सौंपे और वन की ओर प्रस्थान कर गए। वहां दीक्षा ली और 56 दिनों की कठोर तपस्या से केवल्य ज्ञान प्राप्त किया।
भगवान नेमिनाथ ने 700 वर्षों तक केवल्य ज्ञानी के रूप में जीवों का मार्गदर्शन किया। जब उनके जीवन के अंतिम क्षण आए, वे गिरनार पर्वत की ओर चले। वहीं उन्होंने अंतिम देशना दी और 536 मुनियों के साथ पादपोगमन व्रत करते हुए एक मास का अनशन पूर्ण किया।
अषाढ़ शुक्ल सप्तमी की मध्य रात्रि को, जब चंद्रमा चित्रा नक्षत्र में था, उन्होंने योग निरोध द्वारा समस्त कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त किया।
आज उनका मोक्ष कल्याणक हम सभी के लिए प्रेरणा और मांगलिक अवसर है।
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