राजनीतिक मंचों पर सेना का जिक्र: हालिया बयानों ने देश में मचाया राजनीतिक घमासान।
ममता बनर्जी, राहुल गांधी सहित कई नेताओं के सेना से जुड़े बयानों पर उठे सवाल, रक्षा मंत्री और पूर्व सैन्य अधिकारियों ने जताई नाराजगी।
कटनी,ग्रामीण खबर mp:
हाल के दिनों में भारत की राजनीति में सेना को लेकर की गई टिप्पणियों ने एक नई बहस को जन्म दिया है। सवाल यह है कि क्या सैन्य बलों को राजनीतिक विमर्श से दूर रखा जाना चाहिए या फिर नेताओं को राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर खुलकर बात करने का अधिकार है। इस बहस का कारण बने कुछ हालिया विवादित बयान, जिनमें भारतीय सेना के कार्यों और निर्णयों को लेकर तीखी राजनीतिक प्रतिक्रियाएं देखने को मिली हैं।
इस विवाद की शुरुआत उस समय हुई जब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हाल ही में म्यांमार सीमा पर भारतीय सेना द्वारा किए गए ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को “राजनीतिक नौटंकी” कहकर संबोधित किया। उन्होंने यह आरोप लगाया कि केंद्र सरकार इस सैन्य अभियान का राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश कर रही है। ममता बनर्जी के इस बयान ने तुरंत ही एक तीव्र राजनीतिक विवाद को जन्म दिया। भारतीय जनता पार्टी ने इस बयान की कड़ी आलोचना करते हुए इसे सेना का अपमान बताया और ममता बनर्जी से सार्वजनिक रूप से माफी की मांग की।
भाजपा नेताओं का कहना था कि सेना के पराक्रम और बलिदान को राजनीतिक दृष्टिकोण से देखना न केवल अनुचित है बल्कि यह जवानों के मनोबल को भी प्रभावित करता है। इस बयान की देशभर में निंदा की गई और कई रक्षा विशेषज्ञों ने भी इसे दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया।
दूसरा विवाद कांग्रेस सांसद राहुल गांधी के एक बयान से शुरू हुआ, जिसमें उन्होंने लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर यह आरोप लगाया कि वह चीन की घुसपैठ को लेकर सच को छिपा रहे हैं। राहुल गांधी का दावा था कि भारतीय सेना के शीर्ष अधिकारी स्वयं यह स्वीकार कर चुके हैं कि चीनी सेना भारतीय क्षेत्र में घुसी हुई है, लेकिन प्रधानमंत्री ने संसद में यह कहकर देश को गुमराह किया कि "कोई नहीं घुसा है"।
इस बयान पर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने प्रतिक्रिया देते हुए राहुल गांधी पर आरोप लगाया कि उन्होंने सेना प्रमुख के बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया है। राजनाथ सिंह ने इसे गैर-जिम्मेदाराना करार देते हुए कहा कि यह देश की सुरक्षा और सेना की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने वाला बयान है। उन्होंने कहा कि संवेदनशील मुद्दों पर राजनीतिक लाभ के लिए बयान देना लोकतांत्रिक मर्यादाओं के खिलाफ है।
इसी कड़ी में अग्निपथ योजना को लेकर भी विवाद देखने को मिला, जब राहुल गांधी ने इस योजना को लेकर आलोचना की और इसे सेना के भविष्य के लिए खतरनाक बताया। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि सरकार इस योजना के जरिए सेना के ढांचे को कमजोर कर रही है।
इस पर प्रतिक्रिया देते हुए भारतीय वायुसेना के पूर्व प्रमुख एयर चीफ मार्शल आर.के.एस. भदौरिया ने कहा कि विपक्ष को सेना को राजनीति में नहीं घसीटना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट किया कि अग्निपथ योजना को गहराई से सोचने-समझने के बाद लागू किया गया है और इसका उद्देश्य सेना की संरचना को और अधिक प्रभावशाली बनाना है।
इन बयानों के बाद यह प्रश्न और भी गंभीर हो गया है कि क्या राजनीति में सेना का प्रयोग बहस का विषय बनना चाहिए। पूर्व सैन्य अधिकारियों और सुरक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि सेना एक संवेदनशील और गैर-राजनीतिक संस्था है, जिसे राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए। उनका यह भी कहना है कि इस प्रकार की बयानबाजी से जवानों का मनोबल टूट सकता है और देश की सुरक्षा व्यवस्था पर गलत प्रभाव पड़ सकता है।
यह घटनाक्रम इस बात को रेखांकित करता है कि राजनीतिक दलों को सार्वजनिक मंचों पर सेना से जुड़े मुद्दों पर बहुत ही सावधानी और संयम के साथ बोलना चाहिए। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में यह आवश्यक है कि राजनीति और सैन्य बलों के कार्यक्षेत्र को स्पष्ट रूप से अलग रखा जाए, ताकि दोनों अपनी-अपनी भूमिकाओं का ईमानदारी से निर्वहन कर सकें।
यदि इस प्रकार की बयानबाजी जारी रहती है, तो यह न केवल देश के संवैधानिक ढांचे के लिए खतरा बन सकती है, बल्कि यह लोकतंत्र में सैन्य संस्थाओं की तटस्थता को भी प्रश्न के घेरे में खड़ा कर सकती है।
आज जब देश के जवान सीमाओं पर अपने जीवन की बाज़ी लगाकर देश की रक्षा कर रहे हैं, तब राजनीतिक मंचों से उन पर की जाने वाली टिप्पणियां न केवल अनुचित हैं, बल्कि यह एक राष्ट्र के रूप में हमारी सोच और परिपक्वता पर भी सवाल उठाती हैं।
अब समय आ गया है कि सभी राजनीतिक दल इस संवेदनशील विषय पर आत्मचिंतन करें और इस बात को सुनिश्चित करें कि सेना को राजनीति में घसीटने से बचा जाए। सेना केवल देश के लिए है, न कि किसी पार्टी विशेष के लिए।